Saturday, 24 April 2010

ग़ज़ल् ४४

घर् यॆः उम्मीद् के तो मोम् के बन्‌ते हैँ जी
सुब्ह् ख़्व़ुर्शीद् निकल्‌ते ही पिघल्‌ते हैँ जी

जब् भी सूरज् की कड़ी धूप् से उड़्‌ता है ख़ुमार्
सू-ए मय्-ख़ानः सर्-ए शाम् निकल्‌ते हैँ जी

एक् सूरज् की किरन् से सभी गुल्-हा-ए चमन्
और् तबस्सुम् से तेरे हम भी निखर्‌ते हैँ जी

बस् यॆः ऽआशिक़् हैँ जो क़द्‌मोँ मेँ गिरे रह्ते हैँ
ठोक्‌रेँ खाके ही कुछ् लोग् सँभल्‌ते हैँ जी !

एक "मूसा" ही ज़माने मेँ हुआ क्योँ मश्हूर् ?
देख् के हुस्न-ए जुदा हम् भी मचल्‌ते हैँ जी



मोम् = wax.
ख़्व़ुर्शीद् = the Sun.
पिघल्‌ना = to melt, to dissolve; to yield, give way.
ख़ुमार् = intoxication; hang-over; languor.
सू = side, direction; towards, in the direction (of).
सू-ए मय्-ख़ानः = towards the tavern.
सर्-ए शाम् = evening; early in the evening.
गुल्-हा-ए चमन् = roses of the garden. (गुल्-हा = roses. चमन् = flower-bed; flower-garden.)
तबस्सुम् = smile.
मूसा = Moses. (As the story goes, he gazed upon god's brilliance - which is always a metaphor for beauty - and fainted.)
हुस्न = goodness; beauty.
जुदा = distinct; extraordinary.
मचल्‌ना = to be wayward, to be disobedient, to sulk.


3 comments:

daanish said...

ग़ज़लों में क़ाफ़िया तो परेशान करता ही है
लेकिन कई बार कोई-कोई रदीफ़ भी मुसीबत बन जाता है
'जी' रदीफ़ सिर्फ दिखने में ही आसन लगता है,,
इसे जिस ख़ूबसूरती से आपने निभाया है
वो बात क़ाबिल-ए-गौर है .... बहु खूब .
घर् यॆः उम्मीद् के तो मोम् के बन्‌ते हैँ जी
सुब्ह् ख़्व़ुर्शीद् निकल्‌ते ही पिघल्‌ते हैँ जी

जिंदाबाद .

रौशन् कामत् said...

धन्यवाद "मुफ़्लिस" साहिब ॥

आपने रदीफ़-ए "जी" की मुसीबत की तरफ़ इशारः किया है । शायद यही वज्ह थी कि मैँ ज़ियादः अशऽआर न कह पाया । और मेरा तज्रिबः है कि ग़ज़ल गोई मेँ जब किसी "दीवार से टकरा" जाता हूँ तब रुक जाना ही बॆहतर है ॥

एक बार फिर आप की सेवा मेँ,
रौशन

daanish said...

Janaab Raushan Sahab
namaskaar .

ek iltejaa karna thi aapse...
in the column "view my complete profile", i could not be able to locate your e-mail address..!!
kyaa aapse phone pr baat ho sakti hai ?? (098722 - 11411)
yaa...
please be kind to quote your email-add...please...