घर् यॆः उम्मीद् के तो मोम् के बन्ते हैँ जी
सुब्ह् ख़्व़ुर्शीद् निकल्ते ही पिघल्ते हैँ जी
जब् भी सूरज् की कड़ी धूप् से उड़्ता है ख़ुमार्
सू-ए मय्-ख़ानः सर्-ए शाम् निकल्ते हैँ जी
एक् सूरज् की किरन् से सभी गुल्-हा-ए चमन्
और् तबस्सुम् से तेरे हम भी निखर्ते हैँ जी
बस् यॆः ऽआशिक़् हैँ जो क़द्मोँ मेँ गिरे रह्ते हैँ
ठोक्रेँ खाके ही कुछ् लोग् सँभल्ते हैँ जी !
एक "मूसा" ही ज़माने मेँ हुआ क्योँ मश्हूर् ?
देख् के हुस्न-ए जुदा हम् भी मचल्ते हैँ जी
मोम् = wax.
ख़्व़ुर्शीद् = the Sun.
पिघल्ना = to melt, to dissolve; to yield, give way.
ख़ुमार् = intoxication; hang-over; languor.
सू = side, direction; towards, in the direction (of).
सू-ए मय्-ख़ानः = towards the tavern.
सर्-ए शाम् = evening; early in the evening.
गुल्-हा-ए चमन् = roses of the garden. (गुल्-हा = roses. चमन् = flower-bed; flower-garden.)
तबस्सुम् = smile.
मूसा = Moses. (As the story goes, he gazed upon god's brilliance - which is always a metaphor for beauty - and fainted.)
हुस्न = goodness; beauty.
जुदा = distinct; extraordinary.
मचल्ना = to be wayward, to be disobedient, to sulk.
Saturday, 24 April 2010
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3 comments:
ग़ज़लों में क़ाफ़िया तो परेशान करता ही है
लेकिन कई बार कोई-कोई रदीफ़ भी मुसीबत बन जाता है
'जी' रदीफ़ सिर्फ दिखने में ही आसन लगता है,,
इसे जिस ख़ूबसूरती से आपने निभाया है
वो बात क़ाबिल-ए-गौर है .... बहु खूब .
घर् यॆः उम्मीद् के तो मोम् के बन्ते हैँ जी
सुब्ह् ख़्व़ुर्शीद् निकल्ते ही पिघल्ते हैँ जी
जिंदाबाद .
धन्यवाद "मुफ़्लिस" साहिब ॥
आपने रदीफ़-ए "जी" की मुसीबत की तरफ़ इशारः किया है । शायद यही वज्ह थी कि मैँ ज़ियादः अशऽआर न कह पाया । और मेरा तज्रिबः है कि ग़ज़ल गोई मेँ जब किसी "दीवार से टकरा" जाता हूँ तब रुक जाना ही बॆहतर है ॥
एक बार फिर आप की सेवा मेँ,
रौशन
Janaab Raushan Sahab
namaskaar .
ek iltejaa karna thi aapse...
in the column "view my complete profile", i could not be able to locate your e-mail address..!!
kyaa aapse phone pr baat ho sakti hai ?? (098722 - 11411)
yaa...
please be kind to quote your email-add...please...
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